Lekhika Ranchi

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वरदान--मुंशी प्रेमचंद

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भोजन समाप्त हो जाने का बिशप ने मेहमानों को थोड़ीसी शराब पिलाई। नशा च़ा तो वे बहकबहककर बातें करने लगे। एक क्षण के बाद अहमद और नीतिदा ने नाचना शुरू किया। यह परेतनृत्य था। दोनों हाथ हिलाहिलाकर कभी एकदूसरे की तरफ लपकते, कभी दूर हट जाते। जब सेवा होने में थोड़ी देर रह गयी तो अहमद ने थायस को फिर गोद में उठाया और घर चला आया। अन्य बालकों की भांति थायस भी आमोदपिरय थी। दिनभर वह गलियों में बालकों के साथ नाचतीगाती रहती थी। रात को घर आती तब भी वह गीत गाया करती, जिनका सिरपैर कुछ न होता।

अब उसे अहमद जैसे शान्त, सीधेसीधे आदमी की अपेक्षा लड़केलड़कियों की संगति अधिक रुचिकर मालूम होती ! अहमद भी उसके साथ कम दिखाई देता। ईसाइयों पर अब बादशाह की क्रुर दृष्टि न थी, इसलिए वह अबाधरूप से धर्म संभाएं करने लगे थे। धर्मनिष्ठ अहमद इन सभाओं में सम्मिलित होने से कभी न चूकता। उसका धमोर्त्साह दिनोंदिन ब़ने लगा। कभीकभी वह बाजार में ईसाइयों को जमा करके उन्हें आने वाले सुखों की शुभ सूचना देता। उसकी सूरत देखते ही शहर के भिखारी, मजदूर, गुलाम, जिनका कोई आश्रय न था, जो रातों में सड़क पर सोते थे, एकत्र हो जाते और वह उनसे कहता-'गुलामों के मुक्त होने के बदन निकट हैं, न्याय जल्द आने वाला है, धन के मतवाले चैन की नींद न सो सकेंगे। ईश्वर के राज्य में गुलामों को ताजा शराब और स्वादिष्ट फल खाने को मिलेंगे, और धनी लोग कुत्ते की भांति दुबके हुए मेज के नीचे बैठे रहेंगे और उनका जूठन खायेंगे।'
यह शुभसन्देश शहर के कोनेकोने में गूंजने लगता और धनी स्वामियों को शंका होती कि कहीं उनके गुलाम उत्तेजित होकर बगावत न कर बैठें। थायस का पिता भी उससे जला करता था। वह कुत्सित भावों को गुप्त रखता।

एक दिन चांदी का एक नमकदान जो देवताओं के यज्ञ के लिए अलग रखा हुआ था, चोरी हो गया। अहमद ही अपराधी ठहराया गया। अवश्य अपने स्वामी को हानि पहुंचाने और देवताओं का अपमान करने के लिए उसने यह अधर्म किया है ! चोरी को साबित करने के लिए कोई परमाण न था और अहमद पुकारपुकारकर कहता था-मुझ पर व्यर्थ ही यह दोषारोपण किया जाता है। तिस पर भी वह अदालत में खड़ा किया गया। थायस के पिता ने कहा-'यह कभी मन लगाकर काम नहीं करता।' न्यायाधीश ने उसे पराणदण्ड का हुक्म दे दिया। जब अहमद अदालत से चलने लगा तो न्यायधीश ने कहा-'तुमने अपने हाथों से अच्छी तरह काम नहीं लिया इसलिए अब यह सलीब में ठोंक दिये जायेंगे !' अहमद ने शान्तिपूर्वक फैसला सुना, दीनता से न्यायाधीश को परणाम किया और तब कारागार में बन्द कर दिया गया। उसके जीवन के केवल तीन दिन और थे और तीनों दिनों दिन यह कैदियों को उपदेश देता रहा। कहते हैं उसके उपदेशों का ऐसा असर पड़ा कि सारे कैदी और जेल के कर्मचारी मसीह की शरण में आ गये। यह उसके अविचल धमार्नुराग का फल था।

चौथे दिन वह उसी स्थान पर पहुंचाया गया जहां से दो साल पहले, थायस को गोद में लिये वह बड़े आनन्द से निकला था। जब उसके हाथ सलीब पर ठोंक दिये गये, तो उसने 'उफ' तक न किया, और एक भी अपशब्द उसके मुंह से न निकला ! अन्त में बोला-'मैं प्यासा हूं ! तीन दिन और तीन रात उसे असह्य पराणपीड़ा भोगनी पड़ी। मानवशरीर इतना दुस्सह अगंविच्छेद सह सकता है, असम्भवसा परतीत होता था। बारबार लोगों को खयाल होता था कि वह मर गया। मक्खियां आंखों पर जमा हो जातीं, किन्तु सहसा उसके रक्तवर्ण नेत्र खुल जाते थे। चौथे दिन परातःकाल उसने बालकों केसे सरल और मृदुस्वर में गाना शुरू किया-मरियम, बता तू कहा गयी थी, और वहां क्या देखा? तब उसने मुस्कराकर कहा-

'वह स्वर्ग के दूत तुझे लेने को आ रहे हैं। उनका मुख कितना तेजस्वी है। वह अपने साथ फल और शराब लिये आते हैं। उनके परों से कैसी निर्मल, सुखद वायु चल रही है।'
और यह कहतेकहते उसका पराणान्त हो गया।
मरने पर भी उसका मुखमंडल आत्मोल्लास से उद्दीप्त हो रहा था। यहां तक कि वे सिपाही भी जो सलीब की रक्षा कर रहे थे, विस्मत हो गये। बिशप जीवन ने आकर शव का मृतकसंस्कार किया और ईसाई समुदाय ने महात्मा थियोडोर की कीर्ति को परमाज्ज्वल अक्षरों में अंकित किया।

अहमद के पराणदण्ड के समय थायस का ग्यारहवां वर्ष पूरा हो चुका था। इस घटना से उसके हृदय को गहरा सदमा पहुंचा। उसकी आत्मा अभी इतनी पवित्र न थी कि वह अहमद की मृत्यु को उसके जीवन के समान ही मुबारक समझती, उसकी मृत्यु को उद्घार समझकर परसन्न होती। उसके अबोध मन में यह भरान्त बीज उत्पन्न हुआ कि इस संसार में वही पराणी दयाधर्म का पालन कर सकता है जो कठिनसे-कठिन यातनाएं सहने के लिए तैयार रहे। यहां सज्जनता का दण्ड अवश्य मिलता है। उसे सत्कर्म से भय होता था कि कहीं मेरी भी यही दशा न हो। उसका कोमल शरीर पीड़ा सहने में असमर्थ था वह छोटी ही उमर में बादशाह के युवकों के साथ क्रीड़ा करने लगी। संध्या समय वह बू़े आदमियों के पीछे लग जाती और उनसे कुछन-कुछ ले मरती थी। इस भांति जो कुछ मिलता उससे मिठाइयां और खिलौने मोल लेती। पर उसकी लोभिनी माता चाहती थी कि वह जो कुछ पाये वह मुझे दे। थायस इसे न मानती थी। इसलिए उसकी माता उसे मारापीटा करती थी। माता की मार से बचने के लिए वह बहुधा घर से भाग जाती और शहरपनाह की दीवार की दरारों में वन्य जन्तुओं के साथ छिपी रहती।

एक दिन उसकी माता ने इतनी निर्दयता से उसे पीटा कि वह घर से भागी और शहर के फाटक के पास चुपचाप पड़ी सिसक रही थी कि एक बुयि उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह थोड़ी देर तक मुग्धभाव से उसकी ओर ताकती रही और तब बोली-'ओ मेरी गुलाब, मेरी गुलाब, मेरी फूलसी बच्ची ! धन्य है तेरा पिता जिसने तुझे पैदा किया और धन्य है तेरी माता जिसने तुझे पाला।'
थायस चुपचाप बैठी जमीन की ओर देखती रही। उसकी आंखें लाल थीं, वह रो रही थी।
बुयि ने फिर कहा-'मेरी आंखों की पुतली, मुन्नी, क्या तेरी माता तुझजैसी देवकन्या को पालपोसकर आनन्द से फूल नहीं जाती, और तेरा पिता तुझे देखकर गौरव से उन्मत्त नहीं हो जाता ?'
थायस ने इस तरह भुनभुनाकर उत्तर दिया, मानो मन ही में कह रही है-मेरा बाप शराब से फूला हुआ पीपा है और माता रक्त चूसने वाली जोंक है।
बुयि ने दायेंबायें देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा है, तब निस्संक होकर अत्यन्त मृदु कंठ से बोली-'अरे मेरी प्यारी आंखों की ज्योति, ओ मेरी खिली हुई गुलाब की कली, मेरे साथ चलो। क्यों इतना कष्ट सहती हो ? ऐसे मांबाप की झाड़ मारो। मेरे यहां तुम्हें नाचने और हंसने के सिवाय और कुछ न करना पड़ेगा। मैं तुम्हें शहद के रसगुल्ले खिलाऊंगी, और मेरा बेटा तुम्हें आंखों की पुतली बनाकर रखेगा। वह बड़ा सुन्दर सजीला जबान है, उसकी दा़ी पर अभी बाल भी नहीं निकले, गोरे रंग का कोमल स्वभाव का प्यारा लड़का है।'
थायस ने कहा-'मैं शौक से तुम्हें साथ चलूंगी।' और उठकर बुयि के पीछे शहर के बाहर चली गयी।
बुयि का नाम मीरा था। उसके पास कई लड़केलड़कियों की एक मंडली थी। उन्हें उसने नाचना, गाना, नकलें करना सिखाया था। इस मंडली को लेकर वह नगरनगर घूमती थी, और अमीरों के जलसों में उनका नाचगाना कराके अच्छा पुरस्कार लिया करती थी।

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